इकाइर् तीन लिंग बोध् - जेंडर श्िाक्षकों के लिए लिंगबोध् या जेंडर एक ऐसा शब्द है जिसे आप सभी अकसर सुनते हैं। बहरहाल यह आसानी से स्पष्ट नहीं होता है। ऐसा लगता है कि इसका हमारे जीवन से खास लेना - देना नहीं है और हम प्रश्िाक्षण कायर्क्रमों में ही इसकी चचार्एँ सुनते हैं। वास्तव में तो हम सभी अपने जीवन में रोश ही इस सत्य का अनुभव करते हंै। यह निधर्रित करता है कि हम कौन हैं और क्या हो सकतेे हैं, कि हम कहाँ जा सकते हैं और कहाँ नहीं। ¯शदगी के बहुत - से विकल्प हमारे लिए अंततः इसके आध् ार पर ही तय होते हैं। ¯लगबोध् या जेंडर की हमारी समझ हमारे अपने परिवार और समाज से ही बनती है। यह हमें उस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है कि हम औरतों और ँपुरफषों को जो भूमिकाएअध्याय 4 में दो विशेष अध्ययनों ;केस - स्टडीशद्ध को शामिल किया गया है, जो अलग - अलग समय और स्थानों से संबंध्ित हैं और हमारे सामने यह बात रखते हैं कि लड़के और लड़कियाँ वैफसे बड़े होते हैं और उनकी सामाजिक भ्िान्नता वैफसे रूप लेती है। ये उदाहरण छात्रा - छात्राओं को यह समझने में सहायता देंगे कि सामाजीकरण हर जगह एक - सा नहीं है। वह समाज से निधर्रित होता है और इसमें समय के साथ सतत् परिवतर्न चलता रहता है। ये अध्याय हमें यह भी बताते हैं कि वैफसे समाज में स्त्राी और पुरफष के लिए अलग - अलग भूमिकाएँ देखी जाती हैं, वैफसे उनके लिए अपने आस - पास निभाते हुए देखते हैं अलग - अलग मूल्य निधर्रित किए जाते हैं और यहीं से ँवे स्वाभाविक हैं और पहले से तय हैं। वास्तव में ये भूमिकाएदुनिया भर में भ्िान्न - भ्िान्न समुदायों के लिए अलग - अलग होती हैं। अतः लिंगबोध् से हमारा आशय उन अनेक सामाजिक मूल्यों और रूढि़वादी धरणाओं से ैह, जिसे हमारी संस्कृति ने हमारे स्त्राीलिंग और पु¯ल्लग होने के जैविक अंतर के साथ जोड़ दिया है। यह शब्द हमें बहुत - सी असमानताओं और स्त्राी व पुरफष के बीच के शक्ित संबंधें को भी समझने में सहायता करता है। आगे के दो अध्याय, हमारे समाज की लैंगिक संकल्पनाओं को बिना इस शब्द का प्रयोग किए हमारे सामने रखते हैं। अच्छा होगा कि विद्याथ्िार्यों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि विभ्िान्न शैक्षण्िाक प(तियों, जैसे - कहानियों की प्रस्तुति, विशेष अध्ययनों पर बातें, कक्षा में गतिविध्ियाँ, तथ्यों की व्याख्या और चित्रों की समीक्षा के माध्यम से वे अपने जीवन व अपने आस - पास के समाज पर विचार करें और सवाल करें। जेंडर शब्द के आने पर अकसर एक खास दृष्िट से लोग यह अध्ूरा अथर् भी लगा लेते हैं कि यह केवल महिलाओं या लड़कियों से जुड़ा हुआ है। इसीलिए इन अध्यायों में इस बात की सावधनी रखी गइर् है कि केवल लड़कियाँ ही नहीं बल्िक लड़के भी जेंडर की चचार् में सहभागी हों। भेद और असमानता की शुरुआत होती है। एक चित्रिात कथाप‘ ;ेजवतल इवंतकद्ध के माध्यम से बच्चे घर के तमाम कामों पर बातें करेंगे, जो मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किए जाते हैं। वे विचार करेंगे कि वैफसे घर में महिलाओं के काम को काम नहीं माना जाता या पिफर उसे अवमूल्ियत किया जाता है। अध्याय 5 कायर् के क्षेत्रा में लिंग आधरित भेदभाव पर वंेफदि्रत है और समानता के लिए किए गए महिलाओं के संघषर् को भी प्रस्तुत करता है। कक्षा की गतिविध्ि में बच्चे काम और पेशों को लेकर समाज में प्रचलित रुढि़वादी मान्यताओं पर सवाल करना शुरू करेंगे। इस अध्याय में इस ओर भी संकेत मिलेंगे कि वैफसे लड़कों और लड़कियों के लिए श्िाक्षा जैसे अवसर समान रूप से उपलब्ध् नहीं हंै। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की दो महिलाओं के जीवन की कहानियों में बच्चे देखेंगे कि इन स्ित्रायों के लिए मुक्ित का संघषर् वैफसे शुरू हुआ और लिखाइर् - पढ़ाइर् सीखने ने इनके जीवन को वैफसे बदला। बड़े परिवतर्न सामान्यतः सामूहिक संघषो± से ही होते हैं। इस अध्याय के अंत में एक चित्रा निबंध् है, जो स्त्राी आंदोलन द्वारा परिवतर्न के लिए उपयोग में लायी नीतियों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। अध्याय4 लड़के और लड़कियों के रूप में बड़ा होना लड़का या लड़की होना किसी की भीएक महत्त्वपूणर् पहचान है, उसकी अस्िमता है। जिस समाज के बीच हम बड़े होते हैं, वह हमें सिखाता है कि लड़के और लड़कियों का वैफसा व्यवहार स्वीकार करने योग्य है। उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। हम प्रायः यही सोचते हुए बड़े होते हैं कि ये बातें सब जगह बिलवुफल एक - सी हैं। परंतु क्या सभी समाजों में लड़के और लड़कियों के प्रति एक जैसा ही नशरिया है? इस पाठ में हम इसी प्रश्नका उत्तर जानने की कोश्िाश करेंगे। हम यह भी देखेंगे कि लड़के और लड़कियों को दी जाने वाली अलग - अलग भूमिका उन्हें भविष्य में स्त्राी और पुरफष की भूमिका के लिए वैफसे तैयार करती है। इस पाठ में हम देखेंगे कि अध्िकांश समाज पुरफष वस्ित्रायों को अलग - अलग प्रकार से महत्त्व देते हैं। स्ित्रायाँ जिन भूमिकाओं का निवार्ह करती हैं, उन्हें पुरफषों द्वारा निवार्ह की जानेवाली भूमिकाओं और कायर् से कम महत्त्व दिया जाता है। इस पाठ में हम यह भी देखेंगे कि स्त्राी और पुरफष के बीच काम के क्षेत्रा में असमानताएँ वैफसे उभरती हैं। 1920 के दशक में सामोआ द्वीप में बच्चों का बड़ा होना सामोआ द्वीप प्रशांत महासागर के दक्ष्िाण में स्िथत छोटे - छोटे द्वीपों के समूह का ही एक भाग है। सामोअन समाज पर किए गए अनुसंधन की रिपोटर् के अनुसार 1920 के दशक में बच्चे स्वूफल नहीं जाते थे। वे बड़े बच्चों और वयस्कों से बहुत - सी बातें सीखते थे, जैसेμछोटे बच्चों की देखभाल या घर का काम वैफसे करना, आदि। द्वीपों परमछली पकड़ना बड़ा महत्त्वपूणर् कायर् था इसलिए किशोर बच्चे मछली पकड़ने के लिए सुदूर यात्राओं पर जाना सीखते थे। लेकिन ये बातें वे अपने बचपन के अलग - अलग समय पर सीखते थे। छोटे बच्चे जैसे ही चलना शुरू कर देते थे उनकी माताएँ या बड़े लोग उनकी देखभाल करना बंद कर देते थे। यह िाम्मेदारी बड़े बच्चों पर आ जाती थी, जो प्रायः स्वयं भी पाँच वषर् के आसपास की उम्र के होते थे। लड़के और लड़कियाँ दोनों अपने छोटे भाइर् - बहनों की देखभाल करते थे, लेकिन जब कोइर् लड़का लगभग नौ वषर् का हो जाता था, वह बड़े लड़कों के समूह में सम्िमलित हो जाता था और बाहर के काम सीखता था, जैसे - मछली पकड़ना और नारियल के पेड़ लगाना। लड़कियाँ जब तक तेरह - चैदह साल की नहीं हो जाती थीं, छोटे बच्चों की देखभाल और बड़े लोगों के छोटे - मोटे कायर् करती रहती थीं, लेकिन एक बार जब वे तेरह - चैदह साल की हो जाती थीं, वे अध्िक स्वतंत्रा होती थीं। लगभग चैदह वषर् की उम्र के बाद वे भी मछली पकड़ने जाती थीं, बागानों में काम करती थीं और डलियाँ बुनना सीखती थीं। खाना पकाने का काम, अलग से बनाए गए रसोइर् घरों मेंही होता था जहाँ लड़कों को ही अध्िकां}ा काम करना होता था और लड़कियाँ उनकी मदद करती थीं। 1960 के दशक में मध्य प्रदेश में पुरफष के रूप में बड़ा होना निम्नलिख्िात आलेख 1960 में मध्य प्रदेश के एक छोटे शहर में रहने और स्वूफल जाने के वणर्न से लिया गया है। कक्षा 6 में आने के बाद लड़के और लड़कियाँ अलग - अलग स्वूफलों में जाते थे। लड़कियों के स्वूफल, लड़कों के स्वूफल से बिलवुफल आपके बडे़ होने के अनुभव, सामोआ के बच्चों और किशोरों के अनुभव से किस प्रकार भ्िान्न हैं? इन अनुभवों में वण्िार्त क्या कोइर् ऐसी बात है, जिसे आप अपने बड़े होने के अनुभव में शामिल करना चाहेंगे? अपने पड़ोस की किसी गली या पावर्फ का चित्रा बनाइए। उसमें छोटे लड़के व लड़कियों द्वारा की जा सकने वाली विभ्िान्न प्रकार की गतिविध्ियों को दशार्इए। यह कायर् आप अकेले या समूह में भी कर सकते हैं। आपके द्वारा बनाए गए चित्रा में क्या उतनी ही लड़कियाँ हैं, जितने लड़के? संभव है कि आपने लड़कियों की संख्या कम बनाइर् होगी। क्या आप वे कारण बता सकते हैं, जिनकी वजह से आपके पड़ोस में, सड़क पर, पाको± और बाशारों में देर शाम या रात के समय स्ित्रायाँ तथा लड़कियाँ कम दिखाइर् देती हैं? क्या लड़के और लड़कियाँ अलग - अलग कामों में लगे हैं? क्या आप विचार करके इसका कारण बता सकते हैं? यदि आप लड़के और लड़कियों का स्थान परस्पर बदल देंगे, अथार्त् लड़कियों के स्थान पर लड़कों और लड़कों के स्थान पर लड़कियों को रखेंगे, तो क्या होगा? अलग ढंग से बनाए जाते थे। उनके स्वूफल के बीच में एक आँगन होता था, जहाँ वे बाहरी दुनिया से बिलवुफल अलग रह कर स्वूफल की सुरक्षा में खेलती थीं। लड़कों के स्वूफल में ऐसा कोइर् आँगन नहीं होता था, बल्िक उनका खेलमैदान बस एक बड़ा - सा खुला स्थान था जो स्वूफल से लगा हुआ था। हर शाम स्वूफल के बाद लड़के, सैकड़ों लड़कियों की भीड़ को सँकरी गलियों से जाते हुए देखते थे। सड़कों पर जाती हुइर् ये लड़कियाँ बड़ी गंभीर दिखती थीं। यह बात लड़कों से अलग थी, जो सड़कों को अनेक कामों के लिए उपयोग करते थे - यँू ही खड़े - खड़े खाली समय बिताने के लिए, दौड़ने और खेलने के लिए और साइकिल चलाने के करतबों को आशमाने के लिए। लड़कियों के लिए गली सीध्े घर पहँुचने का एक माध्यम थी। लड़कियाँ हमेशा समूहों में जाती थीं। शायद उनके मन में यह डर रहता था कि कोइर् उन्हें छेड़ न दे या उन पर हमला न कर दे। ऊपर के दो उदाहरणों को पढ़ने के बाद हमें लगता है कि बड़े होने के भी कइर् तरीके हैं। हम प्रायः सोचते हैं कि बच्चे एक ही तरीके से बड़े होते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हम अपने अनुभवों से ही सबसे श्यादा परिचित होते हैं। यदि हम अपने परिवार के बुशुगो± से बात करें, तो पाएँगे कि उनका बचपन शायद हमारे बचपन से बहुत भ्िान्न था। हम यह भी अनुभव करते हैं कि समाज, लड़के और लड़कियों में स्पष्ट अंतर करता है। यह बहुत कम आयु से ही शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए - उन्हें खेलने के लिए भ्िान्न ख्िालौने दिए जाते हैं। लड़कों को प्रायः खेलने के लिए कारें दी जाती हैं और लड़कियों को गुडि़याँ। दोनों ही ख्िालौने, खेलने में बड़े आनंददायक हो सकते हैं, पिफर लड़कियों को गुडि़याँ और लड़कों को कारें ही क्यों दी जाती हैं? ख्िालौने बच्चों को यह बताने का माध्यम बन जाते हैं कि जब वे बड़े होकर स्त्राी और पुरफष बनेंगे, तो उनका भविष्य अलग - अलग होगा। अगर हम विचार करें, तो यह अंतर प्रायः प्रतिदिन की छोटी - छोटी बातों में बना कर रखा जाता है। लड़कियों को वैफसे कपड़े पहनने चाहिए, लड़के पावर्फ में कौन - से खेल खेलें, लड़कियों को ध्ीमी आवाश में बात करनी चाहिए और लड़कों को रौब से - ये सब बच्चों को यह बताने के तरीके हैं कि जब वे बड़े होकर स्त्राी और पुरफष बनेंगे, तो उनकी विश्िाष्ट भूमिकाएँ होंगी। बाद के जीवन में इसका प्रभाव हमारे अध्ययन के विषयों या व्यवसाय के चुनाव पर भी पड़ता है। 46 सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन ‘मेरी माँ काम नहीं करती’ माँ! हम सभी बच्चे स्वूफल से भ्रमण पर जारहे हैं। रोशी मैडम को साथ चलने के लिएकिसी बड़े की शरूरत है। क्या आप अपनेआॅपिफस से एक दिन की छुट्टी लेकर हमारेसाथ चल सकती हैं? वैसे हरमीत की माँ हमेशा ऐसे समय पर हमारे साथ जाती हैं, क्योंकि वे कोइर् काम नहीं करतीं। सोनाली, तुम ऐसा वैफसे कह सकती हो? तुम जानती हो, जसप्रीत आंटी रोज सुबह 5 बजे उठ जाती हैं और घर भर के सारे काम करती हैंै। हाँ, पर वे कोइर् काम तो नहीं हंै न। ये तो बस घर के काम हैं। ओह! क्या तुम वाकइर् ऐसा ही सोचतीहो? चलो ऐसा करते हैं कि जसप्रीत केघर चलते हैं और उससे पूछते हैं कि वेखुद क्या सोचती है? श्री सिंह के घर पर...तो जसप्रीत! यदि ऐसा है, तो तुम वाह! कितना मशा आएगा। कलवुफछ आराम क्यों नहीं करतीं औरहरशरण, सोनाली सोचती है पर आंटी! क्या वाकइर् ये ठीक नहीं हम पापा के साथ मिलकर साराएक बार शरा इन्हें ही सब वुफछकि आपकी पत्नी कोइर् है? मेरी माँ तो घरेलू महिला है कोइर् काम सँभालेंगे!खुद करने दो..काम कहाँ करती है?कामकाजी महिला नहीं है। क्या बात है! ठीक, मैं कल हड़ताल पर चली जाती हूँ। हाँ, हाँ! हे भगवान! समय तो देखो। मेरा नाश्ता कहाँ है? और बच्चे अभी तक तैयार क्यों नहीं हुए हैं? अगली सुबह, 7ः30 बजे ओह - हो! यह तो स्वूफल बस थी। अब तो मुझे बच्चों को कार से ही स्वूफल छोड़ना होगा। जल्दी करो! जल्दी। और हरमीत को कहो कि वह पंप का स्िवच आॅन करे। मैं क्या जानूँ? याद है न! मैं तो हड़ताल पर हूँ। आज तो मंगला ने भी छुट्टी ले रखी है। शाम 6 बजे..लेकिन बच्चों के लंच बाॅक्स का क्या होगा? मैं तुम्हंे वुफछ पैसे दे दूँगा। तुमअरे, यह भी...।वैंफटीन से वुफछ खरीद लेना..उसके बारे में भूलजाओ! माँ ने इसके लिए पहले ही पैसे दे दिये हैं..मैं तो बिल्वुफल थक चुका हूँ। वुफछचाय - वाय हो जाए। आह! मैं तो भूलही गया था कि... तुम हड़ताल पर हो..मैं खुद ही वुफछ बनाता हूँ। पूरा घर तो देखो जैसे कि यहाँ कितना तूप़्ाफान मचा हो.. तुम क्या सोचते हो कि सुबह तुम ने घर को जैसी हालत में छोड़ा था, वह वैसी ही हालत में दिन भर रहेगा? हरमीत! कम्बख़्त चायकी पिायाँ कहाँ रखी हुइर् हैं? ही, ही! क्या अभी भी वे सोचते हैं कि मैं काम नहीं करती ह।... और अभी तो मैं उन्हंे याद दिलाउँफगी कि चाचाजी और चाचीजी रात के खाने पर आने वाले हैं। अध्िकांश समाजों में, जिनमें हमारा समाज भी सम्िमलित है,पुरफषों और स्ित्रायों की भूमिकाओं और उनके काम के महत्त्व को समान नहीं समझा जाता है। पुरफषों और स्ित्रायों की हैसियत एक जैसी नहीं होती है। आओ देखें कि पुरफषों और स्ित्रायों के द्वारा किए जाने वाले कामों में यह असमानता वैफसे है। घरेलू काम का मूल्य हरमीत के परिवार को नहीं लगता था कि जसप्रीत घर का जो काम करती थी, वह वास्तव में काम था। उनके परिवार में ऐसी भावना का होना कोइर् निराली बात नहीं थी। सारी दुनिया में घर के काम की ूँ48 सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन मुख्य िाम्मेदारी स्ित्रायों की ही होती है जैसे - देखभाल संबंध्ी कायर्, परिवार का ध्यान रखना, विशेषकर बच्चों, बुशुगो± और बीमारों का। पिफर भी, जैसा हमने देखा, घर के अंदर किए जाने वाले कायो±को महत्त्वपूणर् नहीं समझा जाता। मान लिया जाता है कि वे तो स्ित्रायों के स्वाभाविक कायर् हैं, इसीलिए उनके लिए पैसा देने की कोइर्शरूरत नहीं है। समाज इन कायो± को अध्िक महत्त्व नहीं देता। घर पर कायर् करने वालों का जीवन उपयुर्क्त कहानी में केवल हरमीत की माँ ही घर के काम नहीं करती थीं। काप़्ाफी सारा काम मंगला करती थी, जो उनके घरेलू काम में मदद के लिए लगाइर् गइर् थी। बहुत - से घरों में विशेषकर शहरों और नगरों में लोगों को घरेलू काम के लिए लगा लिया जाता है। वे बहुत काम करते हैं - झाड़ लगाना, सपफाइर् करना, कपड़े और बतर्न धेना,़ूखाना पकाना, छोटे बच्चों और बुशुगो± की देखभाल करना, आदि। घर का काम करने वाली अध्िकांशतः स्ित्रायाँ होती हैं। कभी - कभी इन कायो± को करने के लिए छोटे लड़के या लड़कियों को काम पररख लिया जाता है। घरेलू काम का अध्िक महत्त्व नहीं है, इसीलिए इन्हें मशदूरी भी कम दी जाती है। घरेलू काम करने वालों का दिन सुबह पाँच बजे से शुरू होकर देर रात बारह बजे तक भी चलता है। जी - तोड़ मेहनत करने के बावशूद प्रायः उन्हें नौकरी पर रखने वाले उनसे सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते हैं। दिल्ली में घरेलू काम करने वाली एक स्त्राी मेलानी ने अपने अनुभव के बारे में इस तरह बताया - फ्मेरी पहली नौकरी एक अमीर परिवार में लगी थी, जो तीन - मंजिले भवन में रहता था। मेमसाहब अजीब महिला थीं, जो हर काम करवाने के लिए चिल्लाती रहती थीं। मेरा काम रसोइर् का था। दूसरी दो लड़कियाँ सप़्ाफाइर् का काम करती थीं। हमारा दिन सुबह पाँच बजे शुरू होता। नाश्ते में हमें एक प्याला चाय और दो रूखी रोटियाँ मिलती थीं। हमें तीसरी रोटी कभी नहीं मिली। शाम के समय जब मैं खाना पकाती थी, दोनों लड़कियाँ मुझसे एक और रोटी की माँगती रहती थीं। मैं चुपके से उन्हें एक रोटी दे देती थी और खुद भी एक रोटी ले लेती थी। हमें दिनभर काम करने के बाद बड़ी भूख लगती थी। हम घर में चप्पल नहीं पहन सकते थे। ठंड के मौसम में हमारे पैर सूज जाते थे। मैं मेमसाहब से डरती थी, परंतु मुझे गुस्सा भी आता और अपमानित भी मिलानी अपनी बच्ची के साथ क्या हरमीत और सोनाली का यह कहना सही था कि हरमीत की माँ काम नहीं करतीं? आप क्या सोचते हैं, अगर आपकी माँ या वे लोग, जो घर के काम में लगे हैं, एक दिन के लिए हड़ताल पर चले जाएँ, तो क्या होगा? आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि सामान्यतया पुरफष या लड़के घर का काम नहीं करते? आपके विचार में क्या उन्हें घर का काम करना चाहिए? हरियाणा और तमिलनाडु राज्यों में स्ित्रायाँ प्रति सप्ताह वुफल कितने घंटे काम करती हैं? इस संबंध् में स्ित्रायों और पुरफषों मंे कितना प़्ाफवर्फ दिखाइर् देता है? महसूस करती थी। क्या हम दिनभर काम नहीं करते थे? क्या हम वुफछ सम्मानजनक व्यवहार के योग्य नहीं थे?य् वास्तव में, जिसे हम घरेलू काम कहते हैं, उसमें अनेक कायर् सम्िमलित रहते हैं। इनमें से वुफछ कामों में बहुत शारीरिक श्रम लगता है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में औरतों और लड़कियों को दूर - दूर से पानी लाना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्ित्रायों औरलड़कियों को जलाऊ लकड़ी के भारी गट्ठर सिर पर ढोने पड़ते हैं। कपड़े धेने, सप़्ाफाइर् करने, झाड़ लगाने और वशन उठाने के कामों मेंूझुकने, उठाने और सामान लेकर चलने की शरूरत होती है। बहुत - से काम जैसे खाना बनाने आदि में लंबे समय तक गमर् चूल्हे के सामने खड़ा रहना पड़ता है। स्ित्रायाँ जो काम करती हैं, वह भारी और थकाने वाला शारीरिक काम होता है - जबकि हम आमतौर पर सोचते हैं कि पुरफष ही ऐसा काम कर सकते हैं। घरेलू और देखभाल के कामों का एक अन्य पहलू, जिसे हममहत्त्व नहीं देते, वह है इन कामों में लगने वाला लंबा समय। वास्तव में यदि हम स्ित्रायों द्वारा किए जाने वाले घर के और बाहर के कामों को जोड़ें, तो हमें पता चलेगा कि वुफल मिलाकर स्ित्रायाँ पुरफषों से अध्िक काम करती हैं। निम्न तालिका में भारत के वेंफद्रीय सांख्ियकीय संगठन द्वारा किए गए विशेष अध्ययन के वुफछ आँकड़े हैं ;1998 - 99द्ध। देख्िाए, क्या आप रिक्त स्थानों को भर सकते हैं? राज्य स्ित्रायों के वेतन सहित कायर् के घंटे ;प्रति सप्ताहद्ध स्ित्रायों के अवैतनिक घरेलू काम के घंटे ;प्रति सप्ताहद्ध स्ित्रायों के वुफल पुरफषों के वेतन काम के घंटे सहित कायर् के घंटे ;प्रति सप्ताहद्ध पुरफषों के अवैतनिक घरेलू काम के घंटे ;प्रति सप्ताहद्ध पुरफषों के वुफल काम के घंटे हरियाणा 23 तमिलनाडु 19 30 35 ? 38 ? 40 2 4 ? ? महिलाओं का काम और समानता जैसा कि हमने देखा, महिलाओं के घरेलू और देखभाल के कामोंको कम महत्त्व देना एक व्यक्ित या परिवार का मामला नहीं है। यह स्ित्रायों और पुरफषों के बीच असमानता की एक बड़ी सामाजिक व्यवस्था का ही भाग है। इसीलिए इसके समाधन हेतु, जो कायर् 50 सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन किए जाने हैं, वे केवल व्यक्ितगत या पारिवारिक स्तर पर नहीं, वरन् शासकीय स्तर पर भी होेने चाहिए। हम जानते हंै कि समानता हमारेसंविधन का महत्त्वपूणर् सि(ांत है। संविधन कहता है कि स्त्राी या पुरफष होने के आधर पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। परंतु वास्तविकता में लिंगभेद किया जाता है। सरकार इसके कारणों को समझने के लिए और इस स्िथति का सकारात्मक निदान ढूँढ़ने के लिए वचनब( है। उदाहरण के लिए सरकार जानती है कि बच्चों की देखभाल और घर के काम का बोझ महिलाओं और लड़कियों पर पड़ता है। स्वाभाविक रूप से इसका असर लड़कियों के स्वूफल जाने पर भी पड़ता है। इससे ही निश्िचत होता है कि क्या महिलाएँ घर के बाहर काम कर सवेंफगी और यदि करेंगी, तो किस प्रकार का काम या कायर्क्षेत्रा चुनेंगी। पूरे देश के कइर् गाँवों में शासन ने आंगनवाडि़या और बालवाडि़याँ खोली हैं। शासन ने एक कानून बनाया है, जिसके तहत यदि किसी संस्था में महिला कमर्चारियों कीसंख्या 30 से अध्िक है, तो उसे वैधनिक रूप से बालवाड़ी ;क्रे}ाद्ध की सुविध देनी होगी। बालवाड़ी की व्यवस्था होने से बहुत - सी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में सुविध होगी। इससे बहुत - सी लड़कियों का स्वूफल जाना भी संभव हो सकेगा। मध्य प्रदेश के एक गांव में आंगनवाड़ी वेंफद्र में बच्चे बहुत - सी स्ित्रायाँ जैसे कहानी में सोनाली की माँ और हरियाणा व तमिलनाडु की महिलाएँ जिनका सवेर्क्षण किया गया - घर के अंदर व बाहर दोनों जगह काम करती हैं। इसे प्रायः महिलाओं के काम के दोहरे बोझ के रूप में जाना जाता है। आप क्या सोचते हैं, यह पोस्टर क्या कहने की कोश्िाश कर रहा है? यह पोस्टर बंगाल की महिलाओं के एक समूह ने बनाया है। क्या इसे आधर बनाकर आप कोइर् अच्छा - सा नारा तैयार कर सकते हैं? 52 सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन 1.साथ में दिए गए वुफछ कथनों पर विचार कीजिए और बताइए कि वे सत्यहैं या असत्य? अपने उत्तर के समथर्न में एक उदाहरण भी दीजिए। 2.घर का काम अदृश्य होता है और इसका कोइर् मूल्य नहीं चुकाया जाता। घर के काम शारीरिक रूप से थकाने वाले होते हैं। घर के कामों में बहुत समय खप जाता है। अपने शब्दों में लिख्िाए कि ‘अदृश्य होने’ ‘शारीरिक रूप से थकाने’ और ‘समय खप जाने’ जैसे वाक्याँशों से आप क्या समझते हैं? अपने घर की महिलाओं के काम के आधर पर हर बात को एक उदाहरण से समझाइए। 3.ऐसे विशेष ख्िालौनों की सूची बनाइए, जिनसे लड़के खेलते हैं और ऐसे विशेष ख्िालौनों की भी सूची बनाइए, जिनसे केवल लड़कियाँ खेलती हैं। यदि दोनों सूचियों में वुफछ अंतर है, तो सोचिए और बताइए कि ऐसा क्यों है? सोचिए कि क्या इसवफा वुफछ संबंध् इस बात से हैं कि आगे चलकर वयस्क के रूप में बच्चों को क्या भूमिका निभानी होगी? 4.अगर आपके घर में या आस - पास, घर के कामों में मदद करने वाली कोइर् महिला है तो उनसे बात कीजिए, और उनके बारे में थोड़ा और जानने की कोश्िाश कीजिए, कि उनके घर में और कौन - कौन हैं? वे क्या करते हैं? उनका घर कहाँ है? वे रोज कितने घंटे तक काम करती हंै? वे कितना कमा लेती हंै? इन सारे विवरणों को शामिल कर, एक छोटी - सी कहानी लिख्िाए। ;कद्धसभी समुदाय और समाजों में लड़वफों और लड़कियों की भूमिकाओं के बारे में एक जैसे विचार नहीं पाए जाते। ;खद्ध हमारा समाज बढ़ते हुए लड़कों और लड़कियों में कोइर् भेद नहीं करता। ;गद्धवे महिलाएँ जो घर पर रहती हैं कोइर् काम नहीं करतीं। ;घद्ध महिलाओं के काम, पुरफषों के काम की तुलना में कम मूल्यवान समझे जाते हैं। शब्द - संकलन अस्िमताः यह एक प्रकार से स्वयं के होने यानी अपने अस्ितत्व के प्रति जागरूकता का भाव है। एक व्यक्ित की कइर् अस्िमता हो सकती हैं। उदाहरण के लिए - एक ही व्यक्ित को एक लड़की, बहन और संगीतकार की तरह अस्िमताा जा सकता है। दोहरा बोझः शाब्िदक रूप में इसका अथर् है - दो गुना वजन। सामान्यतः इस शब्द का महिलाओं के काम की स्िथतियों को समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। यह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि महिलाएँ आमतौर पर घर के भीतर और घर के बाहर दोहरा कायर् - भार सँभालती हैं। देखभालः देखभाल के अंतगर्त अनेक काम आते हैं, जैसे - संभालना, ख्याल रखना, पोषण करना, आदि। शारीरिक कायो± के अतिरिक्त इसमें गहन भावनात्मक पहलू भी सम्िमलित है। अवमूल्ियतः जब कोइर् अपने काम के लिए अपेक्ष्िात मान्यता या स्वीकृति नहीं पाता है, तब वह स्वयं को अवमूल्ियत महसूस करता है। उदाहरण के लिए देखें, अगर कोइर् लड़का अपने मित्रा के लिए घंटों सोच - विचार कर, बहुत खोजकर एक ‘उपहार’ बनाता है और उसका मित्रा उसे देखकर वुफछ भी न कहे, तो ऐसे में पहला लड़का अवमूल्ियत महसूस करता है।