Bharatiya Itihas ke Kuch Vishay-I

मांडा हड़प्पा राखीगढ़ी बनावली मिताथल कालीबंगन गंवेरीवाला मोहनजोदड़ो कोटदीजी सुत्कागेंडोर आमरीचन्हुदड़ोबालाकोट अरब सागर धौलावीरा मानचित्रा 1 वुफछ महत्वपूणर् लोथल नागेश्वर रंगपुर विकसित हड़प्पा पुरास्थल रेखाचित्रा पैमाना नहीं दिया गया है। 1ण् आरंभ इस क्षेत्रा में विकसित हड़प्पा से पहले भी कइर् संस्कृतियाँ अस्ितत्व में थीं। ये संस्कृतियाँ अपनी विश्िाष्ट मृदभाण्ड शैली से संब( थीं तथाइनके संदभर् में हमें कृष्िा, पशुपालन तथा वुफछ श्िाल्पकारी के साक्ष्य भी मिलते हैं। बस्ितयाँ आमतौर पर छोटी होती थीं और इनमें बड़े आकार की संरचनाएँ लगभग न के बराबर थीं। वुफछ स्थलों पर बड़े पैमाने पर इलाकों में जलाए जाने के संकेतों से तथा वुफछ अन्य स्थलों के त्याग दिए जाने से ऐसा प्रतीत होता है कि आरंभ्िाक हड़प्पा तथा हड़प्पा सभ्यता के बीच क्रम - भंग था। 2ण् निवार्ह के तरीके आपने मानचित्रों ;1 तथा 2द्ध में देखा होगा कि विकसित हड़प्पा संस्कृतिवुफछ ऐसे स्थानों पर पनपी जहाँ पहले आरंभ्िाक हड़प्पा संस्कृतियाँअस्ितत्व में थीं। इन संस्कृतियों में कइर् तत्व जिनमें निवार्ह के तरीके शामिल हैं, समान थे। हड़प्पा सभ्यता के निवासी कइर् प्रकार के पेड़ - पौधों से प्राप्त उत्पाद और जानवरों जिनमें मछली भी शामिल है, से प्राप्त भोजन करते थे। जले अनाज के दानों तथा बीजों की खोज से पुरातत्वविद आहार संबंधी आदतों के विषय में जानकारी प्राप्त करने में सपफल हो पाए हैं। इनका अध्ययन पुरा - वनस्पतिज्ञ करते हैं जो प्राचीन वनस्पति के अध्ययन के विशेषज्ञ होते हैं। हड़प्पा स्थलों से मिले अनाज के दानों में गेहूँ, जौ, दाल, सपेफद चना़तथा तिल शामिल हैं। बाजरे के दाने गुजरात केस्थलों से प्राप्त हुए थे। चावल के दाने अपेक्षाकृत कम पाए गए हैं। हड़प्पा स्थलों से मिली जानवरों की हियóांेमें मवेश्िायों, भेड़, बकरी, भैंस तथा सूअर की सिसवल याँ शामिल है। पुरा - प्राण्िाविज्ञानियों अथवा जीव - पुरातत्वविदों द्वारा किए गए अध्ययनों से कोटदीजी हिóंदंबसादात संकेत मिलता है कि ये सभी जानवर पालतू थे। जंगली प्रजातियों जैसे वराह ;सूअरद्ध, हिरण तथा आमरी - नाल घडि़याल की हिó याँ भी मिली हैं। हम यह नहीं जान पाए हैं कि हड़प्पा - निवासी स्वयं इन जानवरों का श्िाकार करते थे अथवा अन्य अरब सागर आखेटक - समुदायों से इनका मांस प्राप्त करते थे। मछली तथा पक्ष्िायों की हिóमानचित्रा 2 याँ भी मिली हैं। आरंभ्िाक हड़प्पाइर् संस्कृति 2ण्1 कृष्िा प्रौद्योगिकी के क्षेत्रा रेखाचित्राहालाँकि अनाज के दानों से कृष्िा के संकेतपैमाना नहीं दिया गया है। मिलते हैं पर वास्तविक कृष्िा वििायों के विषय में स्पष्ट जानकारी मिलना कठिन है। क्या जुते हुए खेतों में बीजों का छिड़काव किया जाता था? मुहरों पर किए गए रेखांकन तथा मृण्मू£तयाँ यह इंगित करती हैं कि वृषभ के विषय में जानकारी थी और इस आधार पर पुरातत्वविद यह मानते हैं कि खेत जोतने के लिए बैलों चित्रा 1ण्3 का प्रयोग होता था। साथ ही चोलिस्तान के कइर् स्थलों और बनावली पकी मि‘ी से बना वृषभ ;हरियाणाद्ध से मि‘ी से बने हल के प्रतिरूप मिले हैं। इसके अतिरिक्त पुरातत्वविदों को कालीबंगन ;राजस्थानद्ध नामक स्थान पर जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है जो आरंभ्िाक हड़प्पा स्तरों से संब( है। इस खेत में हल रेखाओं के दो समूह एक - दूसरे को समकोण पर काटते हुए विद्यमान थे जो दशार्ते हंै कि एक साथ दो अलग - अलग पफसलें उगाइर् जाती थीं।़ पुरातत्वविदों ने प़् ाफसलों की कटाइर् के लिए प्रयुक्त औशारों को पहचानने का प्रयास भी किया है। क्या हड़प्पा सभ्यता के लोग लकड़ी के हत्थों में बिठाए गए पत्थर के पफलकों का प्रयोग करते थे या पिफर वे धातु के औशारों का प्रयोग करते थे? अिाकांश हड़प्पा स्थल अधर् - शुष्क क्षेत्रों में स्िथत हैं जहाँ संभवतः ऽ चचार् कीजिए.. कृष्िा के लिए ¯सचाइर् की आवश्यकता पड़ती होगी। अपफगानिस्तान में़मानचित्रा 1 तथा 2 की आपस में तुलनाशोतुर्घइर् नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के वुफछ अवशेष मिले हैं, परंतु कीजिए तथा इनमें बस्ितयों के वितरण मेंपंजाब और ¯सध में नहीं। ऐसा संभव है कि प्राचीन नहरें बहुत पहले ही समानताओं तथा असमानताओं की सूची बनाइए।गाद से भर गइर् थीं। ऐसा भी हो सकता है कि वुफओं से प्राप्त पानी का प्रयोग ¯सचाइर् के लिए किया जाता हो। इसके अतिरिक्त धौलावीरा;गुजरातद्ध में मिले जलाशयों का प्रयोग संभवतः कृष्िा के लिए जल संचयन हेतु किया जाता था। ड्डोत 1 पुरावस्तुओं की पहचान वैफसे की जाती है Â पुरातत्वविद वतर्मान समय की तुलनाओं से यह समझने का प्रयास करते हैं कि प्राचीन पुरावस्तुएँ किस प्रयोग में लायी जाती थीं। मैके खोजी गइर् वस्तु की तुलना आजकल की चक्िकयों से कर रहे थे? क्या यह एक उपयोगी नीति है? चित्रा 1ण्6 अवतल चक्की भोजन तैयार करने की प्रिया में अनाज पीसने के यंत्रा तथा उन्हें आपस में मिलाने, मिश्रण करने तथा पकाने के लिए बरतनों की आवश्यकता थी। इन सभी को पत्थर, धातु तथा मि‘ी से बनाया जाता था। यहाँ एक महत्वपूणर् हड़प्पा स्थल मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों पर सबसे आरंभ्िाक रिपोटा±े में से एक से वुफछ उ(रण दिए जा रहे हैंः अवतल चक्िकयाँ ... बड़ी संख्या में मिली हैं ... और ऐसा प्रतीत होता है कि अनाज पीसने के लिए प्रयुक्त ये एकमात्रा साधन थीं। साधारणतः ये चक्िकयाँ स्थूलतः कठोर, वंफकरीले, अग्िनज अथवा बलुआ पत्थर से निमिर्त थीं और आमतौर पर इनसे अत्यिाक प्रयोग के संकेत मिलते हैं।चूँकि इन चक्िकयों के तल सामान्यतया उत्तल हैं, निश्िचत रूप से इन्हें शमीन में अथवा मि‘ी में जमा कर रखा जाता होगा जिससे इन्हें हिलने से रोका जा सके। दो मुख्य प्रकार की चक्िकयाँ मिली हैं। एक वे हैं जिन पर एक दूसरा छोटा पत्थर आगे - पीछे चलाया जाता था, जिससे निचला पत्थर खोखला हो गया था, तथा दूसरी वे हैं जिनका प्रयोग संभवतः केवल सालन या तरी बनाने के लिए जड़ी - बूटियों तथा मसालों को वूफटने के लिए किया जाता था। इन दूसरे प्रकार के पत्थरों को हमारे श्रमिकों द्वारा ‘सालन पत्थर’ का नाम दिया गया है तथा हमारे बावचीर् ने एक यही पत्थर रसोइर् में प्रयोग के लिए संग्रहालय से उधार माँगा है। अनर्ेस्ट मैके, पफदर्र एक्सवैफवेशन्स एट मोहनजोदड़ो, 1937 से उ(ृत चित्रा 1ण्5 धौलावीरा से मिला जलाशय। इसके राजगिरी - कायर् पर ध्यान दीजिए। Â चचार् कीजिए..आहार संबंधी आदतों को जानने के लिए पुरातत्वविद किन साक्ष्यों का इस्तेमाल करते हैं। 3ण् मोहनजोदड़ो एक नियोजित शहरी वेंफद्र संभवतः हड़प्पा सभ्यता का सबसे ूू शहरी केद्रं अनठा पहलंोका विकास था। आइए ऐसे ही एक वेंफद्र, मोहनजोदड़ो को और सूक्ष्मता से चित्रा 1ण्7 देखते है। हालाँेहनजादडो सबसे प्रसि( पुरास्थल है, सबसे पहलेंकिमो़ मोहनजोदड़ो का नक्शा खोजा गया स्थल हड़प्पा था। Â निचला शहर दुगर् से किस प्रकार बस्ती दो भागों में विभाजित है, एक छोटा लेकिन ऊँचाइर् पर बनाया भ्िान्न है? गया और दूसरा कहीं अिाक बड़ा लेकिन नीचे बनाया गया। पुरातत्वविदों ने इन्हें क्रमशः दुगर् और निचला शहर का नाम दिया है। दुगर् की ऊँचाइर् का कारण यह था कि यहाँ की संरचनाएँ कच्ची ईंटों के चबूतरे पर बनी थीं। दुगर् को दीवार से घेरा गया था जिसका अथर् है कि इसे निचले शहर से अलग किया गया था। निचला शहर भी दीवार से घेरा गया था। इसके अतिरिक्त कइर् भवनोंको ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था जो नींव का कायर् करते थे। अनुमान लगाया गया है कि यदि एक श्रमिक प्रतिदिन एक घनीय मीटर मि‘ी ढोता होगा, तो मात्रा आधारों को बनाने के लिए ही चालीस लाख श्रम - दिवसों, अथार्त ् बहुत बड़े पैमाने पर श्रम की आवश्यकता पड़ी होगी। अब वुफछ और देख्िाए। एक बार चबूतरों के यथास्थान बनने के बाद शहर का सारा भवन - निमार्ण कायर् चबूतरों पर एक निश्िचत क्षेत्रा तक सीमित था। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि पहले बस्ती का नियोजन किया गया था और पिफर उसके अनुसार कायार्न्वयन। नियोजन के अन्य लक्षणों में ईंटें शामिल हैं जो भले ही धूप में सुखाकर अथवा भट्टòी में पकाकर बनाइर् गइर् हों, एक निश्िचत अनुपात की होती थीं, जहाँ लंबाइर्और चैड़ाइर्, ऊँचाइर् की क्रमशः चार गुनी और दोगुनी होती थी। इस प्रकार की ईंटें सभी हड़प्पा बस्ितयों में प्रयोग में लाइर् गइर् थीं। 3ण्1 नालों का निमार्ण हड़प्पा शहरों वफी सबसे अनूठी विश्िाष्टताओं में से एक ध्यानपूवर्क नियोजित जल निकास प्रणाली थी। यदि आप निचले शहर के नक्शे को चित्रा 1ण्8 देखें तो आप यह जान पाएँगे कि सड़कों तथा गलियों को लगभग एकमोहनजोदड़ो की एक नाली और ‘गि्रड’ प(ति में बनाया गया था और ये एक दूसरे को समकोण पर इसके विशाल प्रवेशद्वार को देख्िाए 3ण्2 गृह स्थापत्य मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। इनमें से कइर् एक आँगन पर वेंफदि्रत थे जिसके चारों ओर कमरे बने थे। संभवतः आँगन, खाना पकाने और कताइर् करने जैसी गतिवििायों का वेंफद्र था, खास तौर से गमर् और श्ुाष्क मौसम में। यहाँ का एक अन्यरोचक पहलू लोगों द्वारा अपनी एकांतता को दिया जाने वाला महत्त्व थाः भूमि तल पर बनी दीवारों में ख्िाड़कियाँ नहीं हैं। इसके अतिरिक्त मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आँगन का सीधा अवलोकन नहीं होता है। हर घर का ईंटों के प़् ाफशर् से बना अपना एक स्नानघर होता था जिसकी नालियाँ दीवार के माध्यम से सड़क की नालियों से जुड़ी हुइर् थीं। वुफछ घरों में दूसरे तल या छत पर जाने हेतु बनाइर् गइर् सीढि़यों के अवशेष मिले थे। कइर् आवासों में कुएँ थे जो अिाकांशतः एक ऐसे कक्ष में बनाए गए थे जिसमें बाहर से आया जा सकता था और जिनका प्रयोग संभवतः राहगीरों द्वारा किया जाता था। विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि मोहनजोदड़ो में कुओं की वुफल संख्या लगभग 700 थी। ड्डोत 2 अब तक खोजी गइर् प्राचीनतमप्रणाली नालियों के विषय में मैके लिखते हैंः ‘‘निश्िचत रूप से यह अब तक खोजी गइर् सवर्था संपूणर् प्राचीन प्रणाली है।’’ हर आवास गली की नालियों से जोड़ा गया था। मुख्य नाले गारे में जमाइर् गइर् ईंटों से बने थे और इन्हें ऐसी ईंटों से ढँका गया था जिन्हें सप़्ाफाइर् के लिए हटाया जा सके। वुफछ स्थानों पर ढँकने के लिए चूना पत्थर की प‘िका का प्रयोग किया गया था। घरों की नालियाँ पहले एक हौदी या मलवंुफड में खाली होती थीं जिसमें ठोस पदाथर् जमा हो जाता था और गंदा पानी गली की नालियों में बह जाता था। बहुत लंबे नालों में वुफछ अंतरालों पर सप़्ाफाइर् के लिए हौदियाँ बनाइर् गइर् थीं। यह पुरातत्व का एक अजूबा ही है कि ‘‘मलबे, मुुख्यतः रेत के छोटे - छोटे ढेर सामान्यतः निकासी के नालों के अगल - बगल पड़े मिले हैं जो दशार्ते हैं..... कि नालों की सप़्ाफाइर् के बाद कचरे को हमेशा हटाया नहीं जाता था।’’ अनर्ेस्ट मैके, अलीर् इंडस सिविलाइर्शेशन, 1948 जल निकास प्रणालियाँ केवल बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थीं बल्िक ये कइर् छोटी बस्ितयों में भी मिली थीं। उदाहरण के लिए, लोथल में आवासों के निमार्ण के लिए जहाँ कच्ची ईंटों का प्रयोग हुआ था, वहीं नालियाँ पकी ईंटों से बनाइर् गइर् थीं। चित्रा 1ण्9 यह मोहनजोदड़ो में एक बड़े आवास का सममितीय आरेखण है। कमरा न. 6 में एक वुफआँ था। 3ण्3 दुगर् दुगर् पर हमें ऐसी संरचनाओं के साक्ष्य मिलते हैं जिनका प्रयोग संभवतः विश्िाष्ट सावर्जनिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था। इनमें एक मालगोदामμएक ऐसी विशाल संरचना है जिसके इटों से बने ± केवल निचले हिस्से शेष हैं, जबकि ऊपरी हिस्से जो संभवतः लकड़ी से बने थे, बहुत पहले ही नष्ट हो गए थेμऔर विशाल स्नानागार सम्िमलित हैं। विशाल स्नानागार आँ गन में बना एक आयताकार जलाशय है जो चारों ओर से एक गलियारे से घ्िारा हुआ है। जलाशय के तल तक जाने के लिए इसके उत्तरी और दक्ष्िाणी भाग में दो चित्रा 1ण्10 दुगर् का नक्शा कि इसका प्रयोग किसी प्रकार के विशेष आनुष्ठाानिक स्नान के लिए किया जाता था। Â चचार् कीजिए..मोहनजोदड़ो के कौन से वास्तुकला संबंधी Â क्या दुगर् पर मालगोदाम तथा स्नानागार के अतिरिक्त अन्य संरचनाएँ लक्षण नियोजन की ओर संकेत करते हैं? भी हैं? सीढि़याँ बनी थीं। जलाशय के किनारों पर ईं टों को जमाकर तथा जिप्सम के गारे के प्रयोग से इसे जलब( किया गया था। इसके तीनांे ओर कक्ष बने हुए थे जिनमें से एक में एक बड़ा वुफआँ था। जलाशय से पानी एक बड़े नाले मेंबह जाता था। इसके उत्तर में एक गलीके दूसरी ओर एक अपेक्षाकृत छोटी संरचना थी जिसमें आठ स्नानघर बनाए गए थे। एक गलियारे के दोनों ओर चार - चार स्नानघर बने थे। प्रत्येक स्नानघर से नालियाँ, गलियारे के साथ - साथ बने एक नाले में मिलती थीं। इस संरचना का अनोखापन तथा दुगर् क्षेत्रा में कइर् विश्िाष्ट संरचनाओं के साथ इनके मिलने से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है 4ण् सामाजिक भ्िान्नताओं का अवलोकन 4ण्1 शवाधान पुरातत्वविद यह जानने के लिए कि क्या किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के बीच सामाजिक तथा आथ्िार्क भ्िान्नताएँ थीं, सामान्यतः कइर् वििायों का प्रयोग करते हैं। इन्हीं वििायों में से एक शवाधानों काअध्ययन है। आप संभवतः मिड्ड के विशाल पिरामिडों जिनमें से वुफछ हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थे, से परिचित हैं। इनमें से कइर् पिरामिड राजकीय शवाधान थे जहाँ बहुत बड़ी मात्रा में धन - संपिा दप़् ाफनाइर् गइर् थी। हड़प्पा स्थलों से मिले शवाधानों में आमतौर पर मृतकों को गतो± में दप़् ाफनाया गया था। कभी - कभी शवाधान गतर् की बनावट एक - दूसरे से भ्िान्न होती थीμवुफछ स्थानों पर गतर् की सतहों पर ईंटों की चिनाइर् की गइर् थी। क्या ये विविधताएँ सामाजिक भ्िान्नताओं की ओर संकेत करती हैं? कहना कठिन है। वुफछ कब्रों में मृदभाण्ड तथा आभूषण मिले हैं जो संभवतः एक ऐसी मान्यता की ओर संकेत करते हैं जिसके अनुसार इन वस्तुओं का मृत्योपरांत प्रयोग किया जा सकता था। पुरुषों और महिलाओं, दोनों के शवाधानों से आभूषण मिले हैं। 1980 के दशक के मध्य में हड़प्पा के कबि्रस्तान में हुए उत्खननों में एक पुरुष की खोपड़ी के समीप शंख के तीन छल्लों, जैस्पर ;एक प्रकार का उपरत्नद्ध के मनके तथा सैकड़ों की संख्या में सूक्ष्म मनकों से बना एक आभूषण मिला था। कहीं - कहीं पर मृतकों को ताँबे के दपर्णों के साथ दप़् ाफनाया गया था। परंतु वुफल मिलाकर ऐसा लगता है कि हड़प्पा सभ्यता के निवासियों का मृतकों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ दप़् ाफनाने में विश्वास नहीं था। 4ण्2 ‘विलासिता’ की वस्तुओं की खोज सामाजिक भ्िान्नता को पहचानने की एक अन्य वििा है ऐसी पुरावस्तुओं का अध्ययन जिन्हें पुरातत्वविद मोटे तौर पर, उपयोगी तथा विलास कीवस्तुओं में वगीर्कृत करते हैं। पहले वगर् में रोशमरार् के उपयोग की वस्तुएँ सम्िमलित हैं जिन्हें पत्थर अथवा मि‘ी जैसे सामान्य पदाथा±े से आसानी से बनाया जा सकता है। इनमें चक्िकयाँ, मृदभाण्ड, सूइयाँ, झाँवा आदि शामिल हैं। ये वस्तुएँ सामान्य रूप से बस्ितयों में सवर्त्रा पाइर् गइर् हैं। पुरातत्वविद उन वस्तुओं को कीमती मानते हैं जो दुलर्भ हों अथवा मँहगी, स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदाथा±े से अथवा जटिल तकनीकों से बनी हों। इस प्रकार प़् ाफयाॅन्स ;घ्िासी हुइर् रेत अथवा बालू तथा रंग और चिपचिपे पदाथर् के मिश्रण को पका कर बनाया गया पदाथर्द्ध के छोटे पात्रा संभवतः कीमती माने जाते थे क्योंकि इन्हें बनाना कठिन था। Â चचार् कीजिए..आधुनिक समय में प्रचलित मृतकों के अंतिम संस्कार की वििायों पर चचार् कीजिए। ये किस सीमा तक सामाजिक भ्िान्नताओं को परिलक्ष्िात करती हंै? चित्रा 1ण्13 औशार तथा मनके स्िथति तब और जटिल हो जाती है जब हमें रोशमरार् के प्रयोग की वस्तुएँ जैसे तकलियाँ, जो प़् ाफयाॅन्स जैसे दुलर्भ पदाथर् से बनी, मिलती हैं। क्या हम इनका वगीर्करण उपयोगी या पिफर विलास की वस्तुओं के रूप में करें? यदि हम ऐसी पुरावस्तुओं के वितरण का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि मँहगे पदाथो± से बनी दुलर्भ वस्तुएँ सामान्यतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसी बड़ी बस्ितयों में वेंफदि्रत हैं और छोटी बस्ितयों में ये विरले ही मिलती हैं। उदाहरण के लिए, प़् ाफयाॅन्स से बने लघुपात्रा जो संभवतः सुगंिात द्रव्यों के पात्रों के रूप में प्रयुक्त होते थे, अिाकांशतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से मिले हैं और कालीबंगन जैसी छोटी बस्ितयों से बिलवुफल नहीं। सोना भी दुलर्भ तथा संभवतः आज की तरह कीमती थाμहड़प्पा स्थलों से मिले सभी स्वणार्भूषण संचयों से प्राप्त हुए थे। 5ण् श्िाल्प - उत्पादन के विषय में जानकारी मानचित्रा 1 में चन्हुदड़ो को चिित कीजिए। यह मोहनजोदड़ो ;125 हेक्टेयरद्ध की तुलना में एक बहुत छोटी ;7 हेक्टेयरद्ध बस्ती है जो लगभग पूरी तरह से श्िाल्प - उत्पादन में संलग्न थी। श्िाल्प काया±े में मनके बनाना, शंख की कटाइर्, धातुकमर्, मुहर निमार्ण तथा बाट बनाना सम्िमलित थे। मनकों के निमार्ण में प्रयुक्त पदाथा±े की विविधता उल्लेखनीय हैः कानीर्लियन ;सुंदर लाल रंग काद्ध, जैस्पर, स्पफटिक, क्वाटर््श तथा सेलखड़ी जैसे पत्थरऋ ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँऋ तथा शंख, प़् ाफयाॅन्स और पकी मि‘ी, सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था। वुफछ मनके दो या उससे अिाक पत्थरों को आपस में जोड़कर बनाए जाते थे और वुफछ सोने के टोप वाले पत्थर के होते थे। इनके कइर् आकार होते थेऋ जैसेμचक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित। वुफछ को उत्कीणर्न या चित्राकारी के माध्यम से सजाया गया था और वुफछ पर रेखाचित्रा उकेरे गए थे। मनके बनाने की तकनीकों में प्रयुक्त पदाथर् के अनुसार भ्िान्नताएँ थीं। सेलखड़ी जो एक बहुत मुलायम पत्थर है, पर आसानी से कायर् हो जाता था। वुफछ मनके सेलखड़ी चूणर् के लेप को साँचे में ढाल कर तैयार किए जाते थे। इससे ठोस पत्थरों से बनने वाले केवल ज्यामितीय आकारों के विपरीत कइर् विविध आकारों के मनके बनाए जा सकते थे। सेलखड़ी के सूक्ष्म मनके वैफसे बनाए जाते थे, यह प्रश्न प्राचीन तकनीकों का अध्ययन करने वाले पुरातत्वविदों के लिए एक पहेली बना हुआ है। पुरातत्वविदों द्वारा किए गए प्रयोगों ने यह दशार्या है कि कानीर्लियन का लाल रंग, पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभ्िान्न चरणों में मनकों को आग में पका कर प्राप्त किया जाता था। पत्थर के ¯पडोंको पहले अपरिष्कृत आकारों में तोड़ा जाता था, और पिफर बारीकी से शल्क निकाल कर इन्हें अंतिम रूप दिया जाता था। घ्िासाइर्, पाॅलिश और इनमें छेद करने के साथ ही यह प्रिया पूरी होती थी। चन्हुदड़ो, लोथल और हाल ही में धौलावीरा से छेद करने के विशेष उपकरण मिले हैं। मि‘ी से बनी पुरावस्तुएँः मृदभाण्ड यदि आप मानचित्रा 1 में नागेश्वर तथा बालाकोट को चिित करें इनमें से कइर् पुरावस्तुएँ दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालयतो आप पाएँया लोथल के स्थानीय संग्रहालय में देखी जा गे कि ये दोनों बस्ितयाँ समुद्र - तट के समीप स्िथत हैं। ये सकती हैं। शंख से बनी वस्तुओं जिनमें चूडि़याँ, करछियाँ तथा पच्चीकारी की वस्तुएँ सम्िमलित हैं, के निमार्ण के विश्िाष्ट वेंफद्र थे जहाँ से यह माल दूसरी बस्ितयों तक ले जाया जाता था। इसी प्रकार, यह भी संभव है कि चन्हुदड़ो और लोथल से तैयार माल ;जैसे मनकेद्ध मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े शहरी वेंफदा्रें तक लाया जाता था। 5ण्1 उत्पादन वेंफद्रों की पहचान श्िाल्प - उत्पादन के वेंफद्रों की पहचान के लिए पुरातत्वविद सामान्यतः निम्नलिख्िात को ढूँढ़ते हैंः प्रस्तर ¯पड, ऽ चचार् कीजिए.. पूरे शंख तथा ताँबा - अयस्क जैसा कच्चा इस अध्याय में दिखाइर् गइर् पत्थर की पुरावस्तुओं मालऋ औशारऋ अपूणर् वस्तुएँऋ त्याग की एक सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के संदभर् में चचार् कीजिए कि क्या इन्हें उपयोगी दिया गया माल तथा वूफड़ा - करकट। अथवा विलास की वस्तुएँ माना जाए। क्या चित्रा 1ण्15 इनमें ऐसी वस्तुएँ भी हैं जो दोनों वगा±े में रखी मृण्मू£त जा सकती हैं? यहाँ तक कि वूफड़ा - करकट श्िाल्प कायर् के सबसे अच्छे संकेतकों में से एक हैं। उदाहरण के लिए, यदि वस्तुओं के निमार्ण के लिए शंख अथवा पत्थर को काटा जाता था तो इन पदाथा±े के टुकड़े वूफड़े के रूप में उत्पादन के स्थान पर पेंफक दिए जाते थे। कभी - कभी बड़े बेकार टुकड़ों को छोटे आकार की वस्तुएँ बनाने के लिए प्रयोग किया जाता था परंतु बहुत छोटे टुकड़ों को कायर्स्थल पर ही छोड़ दिया जाता था। ये टुकड़े इस ओर संकेत करते हैं कि छोटे, विश्िाष्ट वेंफद्रों के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा जैसे बड़े शहरों में भी श्िाल्प उत्पादन का कायर् किया जाता था। 6ण् माल प्राप्त करने संबंधी नीतियाँ जैसा कि स्पष्ट है कि श्िाल्प उत्पादन के लिए कइर् प्रकार के कच्चे माल का प्रयोग होता था। हालाँकि वुफछ, जैसे कि मि‘ी, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध थे, वुफछ अन्य जैसे पत्थर, लकड़ी तथा धातु जलोढ़क मैदान से बाहर के क्षेत्रों से मँगाने पड़ते थे। बैलगाडि़यों के मि‘ी से बने ख्िालौनों के प्रतिरूप संकेत करते हैं कि यह सामान तथा लोगों के लिए स्थल मागा±े द्वारा परिवहन का एक महत्वपूणर् साधन था। संभवतः ¯सधु तथा इसकी उपनदियों के बगल में बने नदी - मागा±े और साथ ही तटीय मागा±े का भी प्रयोग किया जाता था। 6ण्1 उपमहाद्वीप तथा उसके आगे से आने वाला माल हड़प्पावासी श्िाल्प - उत्पादन हेतु माल प्राप्त करने के लिए कइर् तरीके अपनाते थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने नागेश्वर और बालाकोट में जहाँ शंख आसानी से उपलब्ध था, बस्ितयाँ स्थापित कीं। ऐसे ही वुफछ अन्य पुरास्थल थेμसुदूर अपफगानिस्तान में शोतुर्घइर्, जो अत्यंत कीमती माने जाने़वाले नीले रंग के पत्थर लाजवदर् मण्िा के सबसे अच्छे ड्डोत के निकट स्िथत था तथा लोथल जो कानीर्लियन ;गुजरात में भड़ौचद्ध, सेलखड़ी;दक्ष्िाणी राजस्थान तथा उत्तरी गुजरात सेद्ध और धातु ;राजस्थान सेद्ध केड्डोतों के निकट स्िथत था। कच्चा माल प्राप्त करने की एक अन्य नीति थीμराजस्थान के खेतड़ी अँचल ;ताँबे के लिएद्ध तथा दक्ष्िाण भारत ;सोने के लिएद्ध जैसे क्षेत्रों में अभ्िायान भेजना। इन अभ्िायानों के माध्यम से स्थानीय समुदायों के साथ संपवर्फ स्थापित किया जाता था। इन इलाकों में यदा - कदा मिलने वाली हड़प्पाइर् पुरावस्तुएँ ऐसे संपका±े की संकेतक हैं। खेतड़ी क्षेत्रा मेंमिले साक्ष्यों को पुरातत्वविदों ने गणेश्वर - जोधपुरा संस्कृति का नाम दियाहै। इस संस्कृति के विश्िाष्ट मृदभाण्ड हड़प्पाइर् मृदभाण्डों से भ्िान्न थे तथा यहाँ ताँबे की वस्तुओं की असाधारण संपदा मिली थी। ऐसा संभव है कि इस क्षेत्रा के निवासी हड़प्पा सभ्यता के लोगों को ताँबा भेजते थे। वैफस्िपयन भूमध्य सागर सागर अल्ितन डेपे मेसोपोटामिया तूरान उरुक उर शहर - ए - सोख्ता हड़प्पा टेपे याहया दिलमुन मेलुहा सुत्कागेंडोर लाल मगान लोथल सागर रसाल जनैश अरब सागर मानचित्रा 3 हड़प्पा सभ्यता तथा पश्िचम एश्िाया रेखाचित्रा पैमाना नहीं दिया गया है। 6ण्2 सुदूर क्षेत्रों से संपवर्फ हाल ही में हुइर् पुरातात्िवक खोजें इंगित करती हैं कि ताँबा संभवतः अरब प्रायद्वीप के दक्ष्िाण - पश्िचमी छोर पर स्िथत ओमान से भी लाया जाता था। रासायनिक विश्लेषण दशार्ते हैं कि ओमानी ताँबे तथा हड़प्पाइर् पुरावस्तुओं, दोनों में निकल के अंश मिले हैं जो दोनों के साझा उद्भव की ओर संकेत करते हैं। संपवर्फ के और भी संकेत मिलते हैं। एक विश्िाष्ट प्रकारका पात्रा अथार्त् एक बड़ा हड़प्पाइर् मतर्बान जिसके ऊपर काली मि‘ी की एक मोटी परत चढ़ाइर् गइर् थी, ओमानी स्थलों से मिला है। ऐसी मोटी परतें तरल पदाथो± के रिसाव को रोक देती हैं। हमें यह नहीं पता कि इन पात्रों में क्या रखा जाता था पर यह संभव है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग इनमें रखे सामान का ओमानी ताँबे से विनिमय करते थे। चित्रा 1ण्17 ओमान में मिला एक हड़प्पाइर् मतर्बान तीसरी सहड्डाब्िद इर्सा पूवर् में दिनांकित मेसोपोटामिया के लेखों में मगान जो संभवतः ओमान के लिए प्रयुक्त नाम था, नामक क्षेत्रा से ताँबे के आगमन के संदभर् मिलते हैं। यहाँ रोचक बात यह है कि मेसोपोटामिया के स्थलों से मिले चित्रा 1ण्18 ताँबे में भी निकल के अंश मिले हैं। लंबी दूरी के संपका±े की ओर यह मेसोपोटामिया की एक विश्िाष्ट बेलनाकार संकेत करने वाली अन्य पुरातात्िवक खोजों में हड़प्पाइर् मुहरें, बाट, पासे मुहर है, परंतु इस पर बना वूफबड़दार वृषभ का तथा मनके शामिल हैं। इस संदभर् में यह भी देखना महत्वपूणर् है कि चित्रा ¯सधु क्षेत्रा से लिया गया प्रतीत होता है। मेसोपोटामिया के लेख दिलमुन ;संभवतः बहरीन द्वीपद्ध, मगान तथा मेलुहा, संभवतः हड़प्पाइर् क्षेत्रा के लिए प्रयुक्त शब्द, नामक क्षेत्रों से संपवर्फ की जानकारी मिलती है। यह लेख मेलुहा से प्राप्त निम्नलिख्िात उत्पादों का उल्लेख करते हैंः कानीर्लियन, लाजवदर् मण्िा, ताँबा, सोना चित्रा 1ण्21 एक प्राचीन सूचनाप‘ के अक्षर 7ण् मुहरें, लिपि तथा बाट 7ण्1 मुहरें और मुद्रांकन मुहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग लंबी दूरी के संपका±े को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था। कल्पना कीजिए कि सामान से भरा एक थैला एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा गया। उसका मुख रस्सी से बाँधा गया और गाँठ पर थोड़ी गीली मि‘ी जमा कर एक या अिाक मुहरों से दबाया गया, जिससे मि‘ी पर मुहरों की छाप पड़ गइर्। यदि इस थैले के अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने तक मुद्रांकन अक्षुण्ण रहा तो इसका अथर् था कि थैले के साथ किसी प्रकार की छेड़ - छाड ़ नहीं की गइर् थी। मुद्रांकन से पे्रषक की पहचान का भी पता चलता था। 7ण्2 एक रहस्यमय लिपि सामान्यतः हड़प्पाइर् मुहरों पर एक पंक्ित में वुफछ लिखा है जो संभवतः मालिक के नाम व पदवी को दशार्ता है। विद्वानों ने यह सुझाव भी दिया है कि इन पर बना चित्रा ;आमतौर पर एक जानवरद्ध अनपढ़ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अथर् बताता था। अिाकांश अभ्िालेख संक्ष्िाप्त हैंऋ सबसे लंबे अभ्िालेख में लगभग 26 चिÉ हैं। हालाँकि यह लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है, परनिश्िचत रूप से यह वणर्मालीय ;जहाँ प्रत्येक चिÉ एक स्वर अथवाव्यंजन को दशार्ता हैद्ध नहीं थी क्योंकि इसमें चिÉों की संख्या कहीं अिाक हैμ लगभग 375 से 400 के बीच। ऐसा प्रतीत होता है कि यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी क्योंकि वुफछ मुहरों पर दाईं ओर चैड़ा अंतराल है और बाईं ओर यह संवुफचित है जिससे लगता है कि उत्कीणर्क ने दाईं ओर से लिखना आरंभ किया और बाद में बाईं ओर स्थान कम पड़ गया। अब हम उन विभ्िान्न प्रकार की वस्तुओं को देखते हैं जिन पर लिखावट मिली हैः मुहरें, ताँबे के औशार, मतर्बानों के अँवठ, ताँबे तथा मि‘ी की लघुप‘िकाएँ, आभूषण, अस्िथ - छड़ें और यहाँ तक कि एक ऽ चचार् कीजिए.. वतर्मान समय में सामान के लंबी दूरी के विनिमय के लिए प्रयुक्त वुफछ तरीकों पर प्राचीन सूचना प‘। याद रख्िाए हो सकता है कि नष्टप्राय वस्तुओं पर भी लिखा जाता हो। क्या इसका यह अथर् लगाया जा सकता है कि साक्षरता व्यापक थी? चचार् कीजिए। उनके क्या - क्या लाभ और समस्याएँ हैं? 7ण्3 बाट विनिमय बाटों की एक सूक्ष्म या परिशु( प्रणाली द्वारा नियंत्रिात थे। ये बाट सामान्यतः चटर् नामक पत्थर से बनाए जाते थे और आमतौर पर ये किसी भी तरह के निशान से रहित घनाकार ;चित्रा 1ण्2द्ध होते थे। इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी ;1ए 2ए 4ए 8ए 16ए 32 इत्यादि 12ए800 तकद्ध थे जबकि ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। छोटे बाटों का प्रयोग संभवतः आभूषणों और मनकों को तौलने के लिए किया जाता था। धातु से बने तराजू के पलड़े भी मिले हैं। 8ण् प्राचीन सत्ता हड़प्पाइर् समाज में जटिल पैफसले लेने और उन्हें कायार्न्िवत करने के संकेत मिलते हैं। उदाहरण के लिए, हड़प्पाइर् पुरावस्तुओं में असाधारण एकरूपता को ही लें, जैसा कि मृदभाण्डों ;चित्रा 1ण्14द्ध, मुहरों, बाटों तथा ईंटों से स्पष्ट है। महत्वपूणर् बात यह है कि ईंटें, जिनका उत्पादन स्पष्ट रूप से किसी एक वेंफद्र पर नहीं होता था, जम्मू से गुजरात तक पूरे क्षेत्रा में समान अनुपात की थीं। हमने यह भी देखा है कि अलग - अलग कारणों से बस्ितयाँ विशेष स्थानों पर आवश्यकतानुसार स्थापित की गइर् थीं। इसके अतिरिक्त ईंटें बनाने और विशाल दीवारों तथा चबूतरों के निमार्ण के लिए श्रम संगठित किया गया था। इन सभी ियाकलापों को कौन संगठित करता था? 8ण्1 प्रासाद तथा शासक सत्ता के वेंफद्र अथवा सत्ताधारी लोगों के विषय में पुरातात्िवक विवरणहमें कोइर् त्वरित उत्तर नहीं देते। पुरातत्वविदों ने मोहनजोदड़ो में मिले एक विशाल भवन को एक प्रासाद की संज्ञा दी परंतु इससे संब( कोइर् भव्य वस्तुएँ नहीं मिली हैं। एक पत्थर की मूतिर् को ‘पुरोहित - राजा’ की संज्ञा दी गइर् थी और यह नाम आज भी प्रचलित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पुरातत्वविद मेसोपोटामिया के इतिहास तथा वहाँ के ‘पुरोहित - राजाओं’ से परिचित थे और यही समानताएँ उन्होंने ¯सधु क्षेत्रा में भी ढूँढ़ी। लेकिन जैसा कि हम देखेंगे ;पृ.23द्ध, हड़प्पा सभ्यता की आनुष्ठानिक प्रथाएँ अभी तक ठीक प्रकार से समझी नहीं जा सकी हंै और न ही यह जानने के साधन उपलब्ध हैं कि क्या जो लोग इन अनुष्ठानों का निष्पादन करतेथे, उन्हीं के पास राजनीतिक सत्ता होती थी। वुफछ पुरातत्वविद इस मत के हैं कि हड़प्पाइर् समाज में शासक नहीं थे तथा सभी की सामाजिक स्िथति समान थी। दूसरे पुरातत्वविद यह ऽ चचार् कीजिए.. मानते हैं कि यहाँ कोइर् एक नहीं बल्िक कइर् शासक थे जैसे मोहनजोदड़ो,क्या हड़प्पाइर् समाज में सभी लोग समान रहे हड़प्पा आदि के अपने अलग - अलग राजा होते थे। वुफछ और यह तवर्फहोंगे? देते हैं कि यह एक ही राज्य था जैसा कि पुरावस्तुओं में समानताओं, नियोजित बस्ितयों के साक्ष्यों, ईंटों के आकार में निश्िचत अनुपात, तथाबस्ितयों के कच्चे - माल के ड्डोतों के समीप संस्थापित होने से स्पष्ट है। अभी तक की स्िथति में अंतिम परिकल्पना सबसे युक्ितसंगत प्रतीत होती है क्योंकि यह कदाचित् संभव नहीं लगता कि पूरे के पूरे समुदायों द्वारा इकट्टòे ऐसे जटिल निणर्य लिए तथा कायार्न्िवत किए जाते होंगे। 9ण् सभ्यता का अंत ऐसे साक्ष्य मिले हैं जिनके अनुसार लगभग 1800 इर्सा पूवर् तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में अिाकांश मानचित्रा 4विकसित हड़प्पा स्थलों को त्याग दिया गया था।उत्तर हड़प्पा के क्षेत्रा इसके साथ ही गुजरात, हरियाणा तथा पश्िचमी उत्तर प्रदेश की नयी बस्ितयों में आबादी बढ़ने लगी थी। ऐसा लगता है कि उत्तर हड़प्पा के क्षेत्रा 1900 इर्सा पूवर् के बाद भी अस्ितत्व में रहे। वुफछ चुने हुएस्वात हड़प्पा स्थलों की भौतिक संस्कृति में बदलाव आया था जैसे सभ्यता की विश्िाष्ट पुरावस्तुओंμबाटों, मुहरों तथा विश्िाष्ट मनकोंμका समाप्त हो जाना। शवाधान एच उत्तरवत्तीर् लेखन, लंबी दूरी का व्यापार तथा श्िाल्प विशेषज्ञता सिसवल भी समाप्त हो गइर्। सामान्यतः थोड़ी वस्तुओं के निमार्ण के लिए थोड़ा ही माल प्रयोग में लाया जाता झूकरथा। आवास निमार्ण की तकनीकों का ”ास हुआ तथा बड़ी सावर्जनिक संरचनाओं का निमार्ण अब बंद हो गया। वुफल मिलाकर पुरावस्तुएँ तथा बस्ितयाँइन संस्कृतियों में एक ग्रामीण जीवनशैली की ओरअरब सागर रंगपुर प्प् बी सी संकेत करती हैं। इन संस्कृतियों को ‘‘उत्तर हड़प्पा’’ रेखाचित्राअथवा ‘‘अनुवतीर् संस्कृतियाँ’’ कहा गया। पैमाना नहीं दिया गया है। ये परिवतर्न वैफसे हुए? इस विषय में कइर् व्याख्याएँ दी गइर् हैं। इनमें जलवायु परिवतर्न, वनों की कटाइर्, अत्यिाक बाढ़, नदियों का सूख जाना और/या मागर् बदल लेना तथा भूमि का अत्यिाक उपयोग सम्िमलित हैं। इनमें से वुफछ ‘कारण’ वुफछ बस्ितयों के संदभर् में तो सही हो सकते हैं परंतु पूरी सभ्यता के पतन की व्याख्या नहीं करते। ऐसा लगता है कि एक सुदृढ़ एकीकरण के तत्व, संभवतः हड़प्पाइर् राज्य, का अंत हो गया था। मुहरों, लिपि, विश्िाष्ट मनकों तथा मृदभाण्डोंके लोप, मानकीकृत बाट प्रणाली के स्थान पर स्थानीय बाटों के प्रयोगऋ शहरों के पतन तथा परित्याग जैसे परिवतर्नों से इस तवर्फ को बल मिलता है। उपमहाद्वीप को एक पूरी तरह से अलग क्षेत्रा में नए शहरों के विकासके लिए एक सहड्डाब्िद से भी अिाक समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। ड्डोत 3 एक ‘आक्रमण’ के साक्ष्य डैडमैन लेन एक सँकरी गली है, जिसकी चैड़ाइर् 3 से 6 प़्ाफीट तक परिवतीर् है . . . . वह ¯बदु जहाँ यह गली पश्िचम की ओर मुड़ती है, 4 प़्ाफीट तथा 2 इंच की गहराइर् पर एक खोपड़ी का भाग तथा एक वयस्ककी छाती तथा हाथ के ऊपरी भाग की हिóयाँ मिली थीं। ये सभी बहुत भुरभुरी अवस्था में थीं। यह धड़ पीठ के बल, गली में आड़ा पड़ा हुआ था। पश्िचम की ओर 15 इंच की दूरी पर एक छोटी खोपड़ी के वुफछ टुकड़े थे। इस गली का नाम इन्हीं अवशेषों पर आधारित है। जाॅन माशर्ल, मोहनजोदड़ो एंड द इंडस सिविलाइर्शेशन, 1931 से उ(ृत। 1925 में मोहनजोदड़ो के इसी भाग से सोलह लोगों के अस्िथ - पंजर उन आभूषणों सहित मिले थे जो इन्होंने मृत्यु के समय पहने हुए थे। बहुत समय पश्चात 1947 में आर.इर्.एम. व्हीलर ने जो भारतीय पुरातात्िवक सवर्ेक्षण के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल थे, इन पुरातात्िवक साक्ष्यों का उपमहाद्वीप में ज्ञात प्राचीनतम ग्रंथ )ग्वेद के साक्ष्यों से संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने लिखाः )ग्वेद में पुर शब्द का उल्लेख है जिसका अथर् है प्राचीर, किला या गढ़। आया±े के यु( के देवता इंद्र को पुरंदर, अथार्त् गढ़ - विध्वंसक कहा गया है। ये दुगर् कहाँ हैं .... या थे ....? पहले यह माना गया था कि ये मिथक मात्रा थे .... हड़प्पा में हाल में हुए उत्खननों ने मानो परिदृश्य बदल दिया है। यहाँ हम मुख्यतः अनायर् प्रकार की एक बहुत विकसित सभ्यता पाते हैं जिसमें अब प्राप्त जानकारी के अनुसार विशाल व्िाफलेबंदियाँ की गइर् थीं .... यह सुदृढ़ रूप से स्िथर सभ्यता वैफसे नष्ट हुइर्? हो सकता है जलवायु संबंधी, आथ्िार्क अथवा राजनीतिक ”ास ने इसे कमशोर किया हो, पर अिाक संभावना इस बात की है कि जानबूझ कर तथा बड़े पैमाने पर किए गए विनाश ने इसे अंतिम रूप से समाप्त कर दिया। यह मात्रा संयोग ही नहीं हो सकता कि मोहनजोदड़ो के अंतिम चरण में आभास होता है कि यहाँ पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों का जनसंहार किया गया था। पारिस्िथतिक साक्ष्यों के आधार पर इंद्र अभ्िायुक्त माना जाता है। आर.इर्.एम. व्हीलर, हड़प्पा 1946, एंश्िाएंट इंडिया ;जनर्लद्ध 1947 से उ(ृत। 1960 के दशक में जाॅजर् डेल्स नामक पुरातत्वविद ने मोहनजोदड़ो में जनसंहार के साक्ष्यों पर सवाल उठाए। उन्होंने दिखाया कि उस स्थान पर मिले सभी अस्िथ - पंजर एक ही काल से संब( नहीं थेः हालाँकि इनमें से दो से निश्िचत रूप में संहार के संकेत मिलते हैं, . . . . पर अिाकांश अस्िथयाँ जिन संदभा±े में मिली हैं वे इंगित करती हैं कि ये अत्यंत लापरवाही तथा श्र(ाहीन तरीके से बनाए गए शवाधान थे। शहरके अंतिम काल से संब( विनाश का कोइर् स्तर नहीं है, व्यापक स्तर पर अग्िनकांड के चिÉ नहीं हैं, चारों ओर पैफले हथ्िायारों के बीच कवचधारी सैनिकों के शव नहीं हैं। दुगर् से जो शहर का एकमात्रा किलेबंद भाग था, अंतिम आत्मरक्षण के कोइर् साक्ष्य नहीं मिले हैं। जी.एपफ.डेल्स, ‘द मिथ्िाकल मैसेकर एट मोहनजोदड़ो’, एक्सपीडीशन, 1964 से उ(ृत। जैसा कि आप देख सकते हैं कि तथ्यों का सावधानीपूवर्क पुननिर्रीक्षण कभी - कभी पूवर्वतीर् व्याख्याओं को पूरी तरह से उलट देता है। ऽ चचार् कीजिए..मानचित्रा 1ए 2 और 4 के बीच समानताओं और भ्िान्नताओं पर विचार कीजिए। 10ण् हड़प्पा सभ्यता की खोज अब तक हमने हड़प्पा सभ्यता के विभ्िान्न पहलुओं का विश्लेषण इस संदभर् में किया है कि किस प्रकार पुरातत्वविदों ने भौतिक अवशेषों से प्राप्त साक्ष्यों के माध्यम से एक आकषर्क इतिहास के अलग - अलग अंशों को एक साथ जोड़ा है। लेकिन एक और कहानी भी हैμकि किस प्रकार पुरातत्वविदों ने सभ्यता की ‘खोज’ की। जब हड़प्पा सभ्यता के शहर नष्ट हो गए तो लोग धीरे - धीरे उनकेविषय में सब वुफछ भूल गए। जब लोगों ने इस क्षेत्रा में सहड्डाब्िदयों बाद रहना आरंभ किया तब वे यह नहीं समझ पाए कि बाढ़ या मि‘ी के कटाव के कारण अथवा खेत की जुताइर् के समय या पिफर खशाने के लिए खुदाइर् के समय यदा - कदा धरती की सतह पर आने वाली अपरिचित पुरावस्तुओं का क्या अथर् लगाया जाए। 10ण्1 क¯नघम का भ्रम जब भारतीय पुरातात्िवक सवर्ेक्षण के पहले डायरेक्टर जनरल क¯नघम ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पुरातात्िवक उत्खनन आरंभ किए, तबपुरातत्वविद अपने अन्वेषणों के मागर्दशर्न के लिए लिख्िात ड्डोतों ;साहित्य तथा अभ्िालेखद्ध का प्रयोग अिाक पसंद करते थे। यहाँ तक कि क¯नघम की मुख्य रुचि भी आरंभ्िाक ऐतिहासिक ;लगभग छठी शताब्दी इर्सा पूवर् से चैथी शताब्दी इर्सवीद्ध तथा उसके बाद के कालों से संबंिात पुरातत्व में थी। आरंभ्िाक बस्ितयों की पहचान के लिए उन्होंने चैथी से सातवीं शताब्दी इर्सवी के बीच उपमहाद्वीप में आए चीनी बौ( तीथर्यात्रिायों द्वारा छोड़े गए वृतांतों का प्रयोग किया। क¯नघम ने अपने सवर्ेक्षणों के दौरान मिले अभ्िालेखों का संग्रहण, प्रलेखन तथा अनुवाद भी किया। उत्खनन के समय वे ऐसी पुरावस्तुओं को खोजने काप्रयास करते जो उनके विचार में सांस्कृतिक महत्त्व की थीं। हड़प्पा जैसा पुरास्थल जो चीनी तीथर्यात्रिायों के यात्रा - कायर्क्रम का हिस्सा नहीं था और जो एक आरंभ्िाक ऐतिहासिक शहर नहीं था, क¯नघम के अन्वेषण के ढाँचे में उपयुक्त नहीं बैठता था। इसलिए हालाँकि हड़प्पाइर् पुरावस्तुएँ उन्नीसवीं शताब्दी में कभी - कभी मिलती थीं और इनमें से वुफछ तो क¯नघम तक पहुँची भी थीं, पिफर भी वह समझ नहीं पाए कि ये पुरावस्तुएँ कितनी प्राचीन थीं। एक अंग्रेश ने क¯नघम को एक हड़प्पाइर् मुहर दी। उन्होंने मुहर पर ध्यान तो दिया पर उन्होंने उसे एक ऐसे काल - खंड में, दिनांकित करने का असपफल प्रयास किया जिससे वे परिचित थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि कइर् और लोगों की तरह ही उनका भी यह मानना था कि भारतीय इतिहास का प्रारंभ गंगा की घाटी में पनपे पहले शहरों के साथ ही हुआ था ;अध्याय 2 देख्िाएद्ध। उनकी सुनिश्िचत अवधारणा के चलतेयह कोइर् आश्चयर् की बात नहीं है कि वह हड़प्पा के महत्त्व को समझने में चूक गए। 10ण्2 एक नवीन प्राचीन सभ्यता कालांतर में बीसवीं शताब्दी के आरंभ्िाक दशकों में दया राम साहनी जैसे पुरातत्वविदों ने हड़प्पा में मुहरें खोज निकालीं जो निश्िचत रूप से आरंभ्िाक ऐतिहासिक स्तरों से कहीं अिाक प्राचीन स्तरों से संब( थीं। अब इनकेमहत्त्व को समझा जाने लगा। एक अन्य पुरातत्वविद राखाल दास बनजीर् ने हड़प्पा से मिली मुहरों के समान मुहरें मोहनजोदड़ो से खोज निकालीं जिससे अनुमान लगाया गया कि ये दोनों पुरास्थल एक ही पुरातात्िवकसंस्कृति के भाग थे। इन्हीं खोजों के आधार पर 1924 में भारतीय पुरातात्िवक सवर्ेक्षण के डायरेक्टर जनरल जाॅन माशर्ल ने पूरे विश्व के समक्ष ¯सधु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की। जैसा कि एस.एन. राव, द स्टोरी आॅप़्ेॅ ाफ इंडियन आविर्फयालाजी, में लिखते हैं, ‘‘माशर्ल ने भारत को जहाँ पाया था, उसे उससे तीन हशार वषर् पीछे छोड़ाय् ऐसा इसलिए था क्योंकि मेसोपोटामिया के पुरास्थलों में हुए उत्खननों से हड़प्पा पुरास्थलों पर मिली मुहरों जैसी, पर तब तक पहचानी न जा सकीं, मुहरें मिली थीं। इस प्रकार विश्व को न केवल एक नयी सभ्यता की जानकारी मिली, पर यह भी कि वह मेसोपोटामिया के समकालीन थी। भारतीय पुरातात्िवक सवर्ेक्षण के डायरेक्टर जनरल के रूप में जाॅन माशर्ल का कायर्काल वास्तव में भारतीय पुरातत्व में एक व्यापक परिवतर्न का काल था। वे भारत में कायर् करने वाले पहले पेशेवर पुरातत्वविद थे और वे यहाँ यूनान तथा क्रीट में अपने काया±े का अनुभव भी लाए। हालाँकि अिाक महत्वपूणर् बात यह है कि क¯नघम की तरह ही उन्हें भी आकषर्क खोजों में दिलचस्पी थी, पर उनमें दैनिक जीवन की प(तियों को जानने की भी उत्सुकता थी। माशर्ल, पुरास्थल के स्तर विन्यास को पूरी तरह अनदेखा कर पूरे टीले में समान परिमाण वाली नियमित क्षैतिज इकाइयों के साथ - साथ उत्खनन करने का प्रयास करते थे। इसका यह अथर् हुआ कि अलग - अलग स्तरों से संब( होने पर भी एक इकाइर् विशेष से प्राप्त सभी पुरावस्तुओं को सामूहिक रूप से वगीर्कृत कर दिया जाता था। परिणामस्वरूप इन खोजों के संदभर् के विषय में बहुमूल्य जानकारी हमेशा के लिए लुप्त हो जाती थी। 10ण्3 नयी तकनीवेंफ तथा प्रश्न 1944 में भारतीय पुरातात्िवक सवर्ेक्षण के डायरेक्टर जनरल बने आर.इर्.एम. व्हीलर ने इस समस्या का निदान किया। व्हीलर ने पहचाना कि एकसमान क्षैतिज इकाइयों के आधार पर खुदाइर् की बजाय टीले के स्तर विन्यास का अनुसरण करना अिाक आवश्यक था। साथ ही, सेना के पूवर् - बि्रगेडियर के रूप में उन्होंने पुरातत्व की प(ति में एक सैनिक परिशु(ता का समावेश भी किया। हड़प्पा सभ्यता की भौगोलिक सीमाओं का आज की राष्ट्रीय सीमाओं से बहुत थोड़ा या कोइर् संबंध नहीं है। लेकिन उपमहाद्वीप के विभाजन तथा पाकिस्तान के बनने के पश्चात्, सभ्यता के प्रमुख स्थल अब पाकिस्तान के क्षेत्रा में हैं। इसी कारण से भारतीय पुरातत्वविदों नेभारत में पुरास्थलों को चिित करने का प्रयास किया। कच्छ में हुए व्यापक सवर्ेक्षणों से कइर् हड़प्पाइर् बस्ितयाँ प्रकाश में आईं तथा पंजाब और हरियाणा में किए गए अन्वेषणों से हड़प्पा स्थलों की सूची में कइर् और नाम जुड़ गए। हालाँकि कालीबंगन, लोथल, राखी गढ़ी और हाल में हुइर् धौलावीरा की खोज, वहाँ हुए अन्वेषण तथा उत्खनन इन्हीं प्रयासों का हिस्सा हैं। नए अन्वेषण अब भी जारी हैं। इन दशकों में नए प्रश्न महत्वपूणर् हो गए हैं। यहाँ वुफछ पुरातत्वविदआमतौर पर सांस्कृतिक उपक्रम का पता लगाने के इच्छुक रहते हैं, वहीं वुफछ और विशेष पुरास्थलों की भौगोलिक स्िथति के पीछे निहित कारणों को समझने का प्रयास करते हैं। वे पुरावस्तुओं रूपी नििा से भी जूझते हैं और उनकी संभावित उपयोगिताओं को समझने का प्रयास करते हैं। 1980 के दशक से हड़प्पाइर् पुरातत्व में अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर भी रुचि लगातार बढ़ती रही है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो, दोनों स्थानोें पर उपमहाद्वीप के तथा विदेशी विशेषज्ञ संयुक्त रूप से कायर् करते रहे हैं। वे आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग करते हैं जिनमें मि‘ी, पत्थर, ऽ चचार् कीजिए..इस अध्याय में दिए गए विषयों में से कौन से क¯नघम को रुचिकर लगते? 1947 के बाद से कौन - कौन से प्रश्न रोचक माने गए हैं? धातु की वस्तुएँ तथा वनस्पति और जानवरों के अवशेष प्राप्त करने हेतु सतह का अन्वेषण और साथ ही उपलब्ध साक्ष्य के हर सूक्ष्म टुकड़े का विश्लेषण सम्िमलित है। ये अन्वेषण भविष्य में रोचक परिणामों की आशा दिलाते हैं। 11ण् अतीत को जोड़कर पूरा करने की समस्याएँ जैसा कि हमने देखा है, हड़प्पाइर् लिपि से इस प्राचीन सभ्यता को जानने में कोइर् मदद नहीं मिलती। बल्िक ये भौतिक साक्ष्य हैं जो पुरातत्वविदों को हड़प्पाइर् जीवन को ठीक प्रकार से पुननिर्मिर् त करने में सहायक होते हैं। ये वस्तुएँμमदभ्ृााण्ड, औशार, आभूषण, घरेलू सामान हो सकती हैं। कपड़ा, चमड़ा, लकड़ी तथा सरवंफडे जैसे जैविक पदाथर् सामान्यतः सड़ जाते हैं, विशेष रूप से ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में। जो वस्तुएँ बच जाती हैं वे हैं पत्थर, पकी मि‘ी तथा धातु। यह भी याद रखना आवश्यक है कि केवल टूटी हुइर् अथवा अनुपयोगी वस्तुएँ ही पंेफकी जाती थीं। अन्य वस्तुएँ संभवतः पुनः चित की जाती थीं। परिणामस्वरूप जो बहुमूल्य वस्तुएँ अक्षत अवस्था में मिलती हैं या तो वे अतीत में खो गइर् थीं या पिफर संचयन के पश्चात कभी दोबारा प्राप्त नहीं की गइर् थीं। अन्य शब्दों में वुफछ खोजें प्रारूपिक की बजाए संयोगिक होती हैं। 11ण्1 खोजों का वगीर्करण पुरावस्तुओं की पुनः प्राप्ित पुरातात्िवक उद्यम का आरंभ मात्रा है। इसकेबाद पुरातत्वविद अपनी खोजों को वगीर्कृत करते हैं। वगीर्करण का एक सामान्य सि(ांत प्रयुक्त पदाथा±ेऋ जैसे - पत्थर, मि‘ी, धातु, अस्िथ, हाथीदाँत आदि के संबंध में होता है। दूसरा, और अिाक जटिल, उनकी उपयोगिता के आधार पर होता है: पुरातत्वविदों को यह तय करना पड़ता है कि उदाहरणतः कोइर् पुरावस्तु एक औशार है या एक आभूषण है या पिफर दोनों अथवा आनुष्ठानिक प्रयोग की कोइर् वस्तु। किसी पुरावस्तु की उपयोगिता की समझ अक्सर आधुनिक समय में प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता पर आधारित होती हैμमनके, चक्िकयाँ, पत्थर के पफलक तथा पात्रा इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। पुरातत्वविद किसी पुरावस्तु की उपयोगिता को समझने का प्रयास उस संदभर् के परीक्षण के माध्यम से भी करते हैं जिसमें वह मिली थीः क्या वे घर में मिली थीं, नाले में, कब्र में, या पिफर भट्टòंे ी म? कभी - कभी पुरातत्वविदों को अप्रत्यक्ष साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए, हालाँकि वुफछ हड़प्पा स्थलों से कपास के टुकडे़ मिले हैं, पर पहनावे के विषय में जानने के लिए हमें अप्रत्यक्ष साक्ष्यों, जैसे मू£तयों में चित्राण पर निभर्र रहना पड़ता है। पुरातत्वविदों को संदभर् की रूपरेखाओं को विकसित करना पड़ता है। हमने देखा है कि पहली प्राप्त हड़प्पाइर् मुहर को तब तक नहीं समझा जा सका जब तक पुरातत्वविदों को उसे समझने के लिए सही संदभर्नहीं मिला। सांस्कृतिक अनुक्रम जिसमें वह मिली थी तथा मेसोपोटामिया में हुइर् खोजों की तुलना, दोनों के संबंध में। 11ण्2 व्याख्या की समस्याएँ पुरातात्िवक व्याख्या की समस्याएँ संभवतः सबसे अिाक धामिर्क प्रथाओं के पुन£नमार्ण के प्रयासों में सामने आती हैं। आरंभ्िाक पुरातत्वविदों को लगता था कि वुफछ वस्तुएँ जो असामान्य और अपरिचित लगती थींसंभवतः धामिर्क महत्त्व की होती थीं। इनमें आभूषणों से लदी हुइर् नारी मृण्मू£तयाँ जिनमें से वुफछ के शीषर् पर विस्तृत प्रसाधन थे, शामिल हैं। इन्हें मातृदेवियों की संज्ञा दी गइर् थी। पुरुषों की दुलर्भ पत्थर से बनीमू£तयाँ जिनमें उन्हें एक लगभग मानकीकृत मुद्रा में एक हाथ घुटने पर रख बैठा हुआ दिखाया गया था, जैसा कि ‘पुरोहित - राजा’, को भी इसीप्रकार वगीर्कृत किया गया था। अन्य दृष्टांतों में, संरचनाओं को आनुष्ठानिकमहत्त्व का माना गया है। इनमें विशाल स्नानागार तथा कालीबंगन और लोथल से मिली वेदियाँ सम्िमलित हैं। मुहरों जिनमें से वुफछ पर संभवतः अनुष्ठान के दृश्य बने हैं, के परीक्षण से धामिर्क आस्थाओं और प्रथाओं को पुन£न£मत करने का प्रयास भी कियागया है। वुफछ अन्य जिन पर पेड़ - पौधे उत्कीण्िार्त हैं, मान्यतानुसार प्रकृति की पूजा के संकेत देते हैं। मुहरों पर बनाए गए वुफछ जानवरμजैसे कि एकसींग वाला जानवर, जिसे आमतौर पर एक शृंगी कहा जाता हैμकल्िपत तथासंश्िलष्ट लगते हैं। वुफछ मुहरों पर एक आकृति जिसे पालथी मार कर ‘योगी’ की मुद्रा में बैठा दिखाया गया है और कभी - कभी जिसे जानवरों से घ्िारा दशार्या गया है, को ‘आद्य श्िाव’, अथार्त् ¯हदू धमर् के प्रमुख देवताओं में से एक का आरंभ्िाक रूप की संज्ञा दी गइर् है। इसके अतिरिक्त पत्थरकी शंक्वाकार वस्तुओं को ¯लग के रूप में वगीर्कृत किया गया है। हड़प्पाइर् धमर् के कइर् पुननिर्मार्ण इस अनुमान के आधार पर किए गए हैं कि आरंभ्िाक तथा बाद की परंपराओं में समानताएँ होती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अिाकांशतः पुरातत्वविद ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ते हैं अथार्त् वतर्मान से अतीत की ओर। हालाँकि यह नीति पत्थर की चक्िकयों तथा पात्रों के संबंध में युक्ितसंगत हो सकती है लेकिन ‘धामिर्क’ प्रतीक के संदभर् में यह अिाक संदिग्ध रहती है। उदाहरण के लिए, आइए हम ‘आद्य श्िाव’ मुहरों को देखते हैं। सबसे आरंभ्िाक धामिर्क ग्रंथ )ग्वेद ;लगभग 1500 से 1000 इर्सा पूवर् के बीच संकलितद्ध में रुद्र नामक एक देवता का उल्लेख मिलता है जो बाद ऽ चचार् कीजिए..हड़प्पाइर् अथर्व्यवस्था के वे कौन - कौन से पहलू हैं जिनका पुननिर्मार्ण पुरातात्िवक साक्ष्यों के आधार पर किया गया है? की पौराण्िाक परंपराओं में श्िाव के लिए प्रयुक्त एक नाम है ;पहलीसहड्डाब्िद इर्सवी मेंः अध्याय 4 भी देख्िाएद्ध। लेकिन श्िाव के विपरीत रुद्र को )ग्वेद में न तो पशुपति ;सामान्य रूप से जानवरों और विशेष रूप से मवेश्िायों के स्वामीद्ध और न ही एक योगी के रूप में दिखाया गया है। दूसरे शब्दों में, यह चित्राण )ग्वेद में दिए गए रुद्र के विवरण से मेल नहीं खाता। पिफर क्या यह कोइर् शमन था, जैसा कि वुफछ विद्वानों ने सुझाया है? इतने दशकों में हुए पुरातात्िवक काया±े की क्या उपलब्िध है? हड़प्पाइर् अथर्व्यवस्था के बारे में अब हमारी जानकारी वुफछ बेहतर है। हम सामाजिक भ्िान्नताओं की गुत्थी सुलझाने में सपफल हुए हैं और सभ्यता की कायर्प्रणाली के विषय में हमारी जानकारी वुफछ बढ़ी है। सच में यह स्पष्ट नहीं है कि लिपि के पढ़े जाने की स्िथति में हम और कितना जान पाते। यदि एक द्विभाष्िाक अभ्िालेख मिलता है तो हड़प्पा निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के विषय में प्रश्नों पर संभवतः विराम लग सकता है। कइर् पुननिर्मार्ण अभी भी संदिग्ध बने हुए हैं। क्या विशाल स्नानागार एक आनुष्ठानिक संरचना थी? साक्षरता कितनी व्यापक थी? हड़प्पाइर् कबि्रस्तानों में सामाजिक भ्िान्नताएँ कम क्यों दिखाइर् देती हैं? स्त्राी - पुरुषसंबंधों से जुड़े प्रश्न भी अनुत्तरित हैंμ क्या महिलाएँ मृदभाण्ड बनाती थीं या पिफर केवल उन्हें रँगने का कायर् करती थीं ;जैसे कि आजकलद्ध? दूसरे श्िाल्पकमिर्यों के क्या कायर् थे? नारी मृण्मूतिर्यों का क्या उपयोग था? हड़प्पा सभ्यता के संदभर् में स्त्राी - पुरुष संबंधों से जुड़े पहलुओं पर बहुत कम विद्वानों ने अन्वेषण किए हैं और यह भविष्य में होने वाले चित्रा 1.30 एक हड़प्पाइर् शवाधान 1ण् हड़प्पा सभ्यता के शहरों में लोगों को उपलब्ध भोजन सामग्री की सूची बनाइए। इन वस्तुओं को उपलब्ध कराने वाले समूहों की पहचान कीजिए। 2ण् पुरातत्वविद हड़प्पाइर् समाज में सामाजिक - आथ्िार्क भ्िान्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं? वे कौन सी भ्िान्नताओं पर ध्यान देते हैं? 3ण् क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों की जल निकास प्रणाली, नगर - योजना की ओरसंकेत करती है? अपने उत्तर के कारण बताइए। 4ण् हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने के लिए प्रयुक्त पदाथा±े की सूची बनाइए। कोइर् भी एक प्रकार का मनका बनाने की प्रिया का वणर्न कीजिए। 5ण् चित्रा 1 को देख्िाए और उसका वणर्न कीजिए। शव किस प्रकार रखा गया है? उसके समीप कौन सी वस्तुएँ रखी गइर् हैं? क्या शरीर पर कोइर् पुरावस्तुएँ हैं? क्या इनसे वंफकाल के ¯लग का पता चलता है? 6ण् मोहनजोदड़ो की वुफछ विश्िाष्टताओं का वणर्न कीजिए। 7ण् हड़प्पा सभ्यता में श्िाल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की सूची बनाइए तथा चचार् कीजिए कि ये किस प्रकार प्राप्त किए जाते होंगे। 8ण् चचार् कीजिए कि पुरातत्वविद किस प्रकार अतीत का पुननिर्मार्ण करते हैं। 9ण् हड़प्पाइर् समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित काया±े की चचार् कीजिए। 10ण् मानचित्रा 1 पर उन स्थलों पर पेंसिल से घेरा बनाइए जहाँ से कृष्िा के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उन स्थलों के आगे क्राॅस का निशान बनाइए जहाँ श्िाल्प उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। उन स्थलों पर ‘क’ लिख्िाए जहाँ कच्चा माल मिलता था।

RELOAD if chapter isn't visible.